स्वस्थ एवं सुखी जीवन की कुंजी
देव दुर्लभ मानव जीवन बड़ी मुश्किल से मिलता है। मनुष्य जीवन की प्राप्ति बहुत ही शुभ कर्मों से होती है। ग़ैर मानवीय लाख़ों योनियों में कर्मों को काटते हुए तब कहीं जाकर मनुष्य को ये अमूल्य जीवन की प्राप्ति होती है।
जब आपको कोई बहुमूल्य वस्तु मिल जाती है तो उसे आप अपने प्राणों से भी अधिक संजोय रखते हैं उस वस्तु से प्यार करने लगते हैं। आप उसकी देखभाल करते हो और सबसे अधिक सुरक्षित रखने का प्रयास करते हो, जबकि अन्तत: वह आपके पास से चली जाएगी और आपको दु:ख भी देगी, किन्तु मानव जीवन तो आपकी अमूल्य निधि है जो किसी भी अन्य वस्तु से कहीं ऊपर है।
फिर हम इसे क्यों व्यर्थ गंवाते हैं? मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य अपना कल्याण करना ही है अर्थात जन्म मरण से निवृति, चाहे इस बात को आप आज समझ लें या सहस्त्रों वर्षों के पश्चात। मानव जीवन तो देवताओ के लिए भी अत्यंत दुर्लभ होता है क्योंकि कर्मों का निर्माण के वल मनुष्य जीवन में ही होता है। देवता और पशु योनियां तो क्रमश: केवल अच्छे-बुरे कर्मों को काटने के लिए ही मिलती है। अतः मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन ही मनुष्य योनि है जिसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। इस जगत में विद्यमान हर जीव में केवल मानव को ही ईश्वर की दो अद्भुत शक्ति प्राप्त है।
विवेक और विवेकशील कर्मों को करने की सामर्थ्य जो हमें अन्य प्राणियों से भिन्न करता है। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अपने शरीर एवं मन दोनों को स्वस्थ रखें। प्रकृति प्रदत्त ये शरीर बड़ा अद्भूत होता है। इस शरीर में सदैव स्वस्थ रहने की प्रकृति स्वतः ही होती है। जब आप अपने शरीर के साथ कुछ असामान्य/ विपरीत कर लेते हैं तो शरीर स्वतः ही उसका निवारण करने लगता है लेकिन हमारी असावधानी एवं अनियमित जीवनचर्या के कारण हम अस्वस्थ हो जातेहैं। साथ ही कर्मों का फल भी हमें रोग ग्रस्त कर देता है।
विद्वानों ने, ऋषियों ने, मुनियों ने, आचार्यों ने तथा चरक बागभट्ट, जीवक चिंतामणि जैसेवैद्यों नेजीवन के सदाचार, शौचाचार, आचार, विचार और आहार, विहार तथा दैनिक जीवन शैली के विषय मेंअनेकों ग्रंथों एवं नियमों की रचना की है, जिनमें केवल हमारेशरीर को स्वस्थ रखनेमात्र का दर्पण ही नहीं हैअपितुमन को, बुद्धि को, आध्यात्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन को या यह कहें कि अन्नमयकोष, प्राणमयकोष, मनोमयकोष, विज्ञानमयकोष एवं आनंदमयकोष सभी प्रकार के शरीरों को स्वस्थ रखनेके लिए ज्ञान व विवेक प्रदान किया है।
सुखी जीवन के लिए जिन भी वस्तुओ की प्राप्ति मानव करना चाहता है जैसे दीर्घ आयु, धन संपदा, मान-सम्मान, व्यवसाय, सन्तान तथा असमय होने वाली दुर्घटनाओ आदि सेछुटकारा सभी फलीभूत हो जाता है जबकि विपरीत कार्य मेंलिप्त मनुष्य इन सबसे कोसों दूर हो जाता है। स्वस्थ व प्रसन्न जीवन के लिए शास्त्रों के अनुसार अपनी अनुशासित जीवनचर्याएवं दिनचर्या का पालन अत्यावश्यक है|
यह जीवनचर्या एवं दिनचर्या इस प्रकार है-
ब्रह्ममुहूर्त में जागरण-
ब्रह्ममुहूर्त प्रातः सूर्य उदय होने से पूर्व 90 मिनट तक का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा जाता है अर्थात ब्रह्मा का समय जिसने इस ब्रह्माण्ड की रचना की हैतो वही शक्ति आपके जीवन की भी सुखद रचना करेगी ही।
नित्य सूर्योदय से पहले जागरण करने से स्वास्थ्य, धन, बल, बुद्धि, विद्या, दीर्घायु तथा यश आदि प्राप्त होता है एवं जीवन विकार रहित रहता है। उठकर सर्वप्रथम अपने ईश्वर का आभार व्यक्त करें, उससे प्रतिदिन शुभ प्रार्थना करें तथा प्रकृति के दिव्य तत्वों का आभार और धन्यवाद करें।
आप यदि चाहें तो अपने दोनों हाथों का दर्शन करतेहुए यह श्लोक भी बोल सकतेहैं-क्योंकि आप के अधिकांश कर्मआपके हाथों सेही संपन्न होतेहैं अतः आपके हाथों मेंही विद्या, धन तथा कर्म स्थित हैजिसके प्रतिदिन स्मरण और नमन करने से आपका सर्वोन्मुखी विकास होता है।
तात्पर्य यह हैकी जिसको जैसी सर्वोच्च शक्ति अथवा प्रकृति को नमन करना आता है वैसे करें तथा अपनी गलतियों की क्षमा माँगें, इससे आपका मन निश्चित ही सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है।
जल ग्रहण–
शरीर में त्रिर्दोष पाए जाते हैं वात, पित्त एवं कफ। स्वस्थ शरीर के लिए इनका संतुलित होना अति आवश्यक है। यदि आप प्रतिदिन सुबह उठकर अपने शरीर के तापमान सेप्लस पाँच डिग्री तक का गर्मपानी अर्थात गुनगुना जल ग्रहण करेंजो आधा लीटर से डेढ़ लीटर तक हो सकता हैतो जीवन विकार रहित होगा। आप पानी को रात्रि में किसी भी धातुअर्थात मुख्यतः ताँबे के बर्तन मेंरखा हुआ पानी भी पी सकतेहैं।
शास्त्रों मेंउल्लेख हैकी गर्मियों में चाँदी के बर्तन में, मॉनसून में ताँबेके बर्तन में तथा शीत ऋतु में किसी भी बर्तन मैं सोने का सिक्का अगर हो तो उसको डालकर उस पानी को पीना चाहिए। सुबह जल ग्रहण की क्रिया को ऊषा पान कहा जाता है। इससे त्रिदोषों का नाश होता है।
मनुष्य के बहुत से विकार जैसे बवासीर, प्रमेह, मस्तक वेदना, शोथ, पागलपन आदि सेमुक्ति मिलती हैऔर बल, बुद्धि, तेज, ओज आदि मेंवृद्धि होती है। सुबह आपको बिस्तर से उठनेके पश्चात उकड़ू बैठकर घूँट घूँट करके यह जल ग्रहण करना चाहिए। यह कार्यमल मूत्र त्यागनेसेपहले किया जाता है।
शौच आदि निवृत्ति प्रक्रिया-
मानव जीवन मेंबहुत सेवेग होते हैं जिन्हें रोकना चाहिए और कु छ ऐसेवेग होतेहैंजिन्हेंकभी भी नहीं रोकना चाहिए। ऐसे वेग जो मानव जीवन का पतन करतेहैंजैसेकाम, क्रोध, शोक, लोभ, मोह, अहंकार, भय, ईर्ष्या आदि। ऐसेवेगों को हमेशा रोकनेका प्रयास करना चाहिए। वेग जिन्हेंरोकना नहीं चाहिए-शरीर मेंहोनेवाली प्राकृतिक क्रियाएँ जैसे छींक, डकार, वायु, मल-मूत्र आदि को रोकनेसेस्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः ऐसेवेगों को कभी नहीं रोकें। हमारेआयुर्वेदिक शास्त्रों जैसे चरक संहिता अष्टांग हृदयम आदि मेंऐसी क्रियाओ का उल्लेख ऋषियों और मुनियों ने पहले ही कर दिया है।
साथ ही शौच आदि क्रिया करतेसमय सिर को हमेशा कपड़े से ढके तथा दाँतों को ज़ोर से सटाकर रखें इससे दाँत मज़बूत होतेहैं और सौ वर्षों तक चलतेहैं । मोबाइल, वार्तालाप आदि क्रियाकलाप न करें। तथा शौच के बाद प्रत्येक अंगों को अच्छे से साफ़ करके सात बार कुल्ला करें एवं स्वच्छता का ध्यान रखें। इस प्रकार शौच आदि क्रिया करने से असंख्य व्याधियों का अंत स्वतः हो जाता है। साथ ही दंत धावन आदि सभी क्रियाओ सेनिवृत्त हो जाए।
योग, प्राणायाम तथा व्यायाम-
स्वस्थ एवं मजबूत शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है यह हम बचपन से सुनते आए हैं। शरीर को पूर्णतः स्वस्थ रखने के लिए एक ऐसा व्यायाम अति आवश्यक है जो शरीर के प्रत्येक अंगों को चाहेवह बाहर के अंग हों अथवा आं तरिक अंग हो तथा साथ ही मन व आत्मा का व्यायाम भी होना अति आवश्यक है।
लाखों करोड़ों वर्षों सेजो सिद्ध हुई परंपरा है वह हमेंअपनानी चाहिए जिसे योग और प्राणायाम कहते हैं। वर्तमान काल में देखा जाए तो योग सर्व सुलभ हो चुका है। प्राचीन काल में यह गुप्त रखने वाली एक कला थी। किन्तुअब यह सर्व सुलभ है इसे हर व्यक्ति अपने बल, काल, आयु, शरीर एवं स्थिति के अनुरूप यौगिक क्रियाएं कर सकता है। शरीर और मन को स्वस्थ रखनेके लिए सिद्धि योगी होने की आवश्यकता नहीं है। सांसारिक जीवन यापन करतेहुए योग को सर्वथा अपनाया जा सकता है, जैसा जिसका सामर्थ्यहो उसके अनुरूप यौगिक क्रियाएं आवश्यक रूप सेअपने दैनिक जीवन मेंअपनानी चाहिए । यहाँ कुछ योगिक क्रियाओ का वर्णन किया जा रहा है जिसे आप अपने जीवन मेंअपना कर संपूर्ण स्वस्थ एवं सुखी हो सकतेहैं।
प्रथम है सूर्य नमस्कार –
सूर्य नमस्कार अपने आप में एक सम्पूर्ण योग क्रिया है जिससे शरीर के प्रत्येक अंग को स्वस्थ किया जा सकता है। और के वल शरीर को ही नहीं अपितु आत्मा को भी स्वस्थ किया जा सकता है। साथ ही इसमें यदि स्वाँस एवं मंत्रों को जो ड़ दिया जाए तो यह योग क्रिया सूक्ष्म, स्थूल एवं कारण शरीर तक का कल्याण कर देती है।
और आपके जीवन में सूर्य जैसा तेज़ एवं प्रकाश का आगमन होता है। सूर्य नमस्कार सुबह एवं सायंकाल दोनों समय किया जा सकता है।
इसमें 12 स्थितियों का समुच्चय होता हैजो सात-आठ आसनों को मिलाकर बनता हैप्रत्येक मनुष्य अपनी शारीरिक क्षमता, देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार सूर्यनमस्कार का अभ्यास कर सकता है। प्रतिएक दिन 5-15 चक्र किए जा सकतेहैंया अधिक भी।
पहले किसी उत्तम योगाचार्य से सूर्यनमस्कार एवं योग के नियमों को अच्छी प्रकार से सीख लेना चाहिए फिर इसको जीवन का एक अभिन्न अंग बना लेना चाहिए। साथ ही दैनिक सूक्ष्म योगिक अभ्यास आपके शरीर को शनैः शनैः व्याधि रहित बना देते हैं।
योगिक सूक्ष्म क्रियाएं जैसे पवन मुक्तासन श्रंखला आदि आपके शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार करके आपको आं तरिक शांति व सुखद जीवन का अनुभव प्रदान करती हैं। साथ ही प्रत्येक अंगों को ह्रस्ट पुष्ट करती हैं। जीवन में स्वस्थ एवं सुखद रहनेके लिए आपको संन्यास लेनेकी आवश्यकता नहीं हैसांसारिक जीवन मेंयोग एवं आध्यात्म अपनाते हुए भी आप सर्वश्रेष्ठ सांसारिक जीवन व्यतीत कर सकतेहैं, वह भी अत्यंत गौरवशाली एवं प्रसन्नचित्त जीवन।
प्राणायाम –
प्राण अर्थात हमारी प्राण शक्ति जिसके कारण हमारा एक एक पल चलायमान है शरीर के अंदर एवं बाहर सभी क्रियाएँमात्र प्राणों के कारण ही अस्तित्व में है। अतः प्राणों को साध लेना एवं सोते -जागते, चलते -फिरते हर पल यदि आप प्राणों के प्रति सजग हो जाएँएवं अपनेप्राणों को योग एवं प्राणायाम जैसे अभ्यासों सेअनुशासित कर लेतेहैंतो आप निश्चित रूप से१०० वर्षतक स्वस्थ एवं सुखद जीवन व्यतीत कर सकते हैं। एवं संसार के लिए उदाहरण बन सकतेहैं। तैलंग स्वामी, लाहिड़ी महाशय, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जैसेसिद्धि योगियों ने प्राणायाम पर अत्याधिक बल दिया हैवैसेतो प्राणों को अनेक विभागों में विभाजित किया गया है परंतु मुख्य प्राण 5 मानेगए हैंजैसेउदान, प्राण, समान, अपान एवं व्यान।
शरीर की सभी क्रियाएँइन पाँच मुख्य एवं पाँच उप-प्राण नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृ कला और धनन्जय सेही संचालित होती हैं। अतः सूक्ष्म सेलेकर स्थूल तक तथा कारण से आत्मिक शरीर तक हर कु छ आप प्राणायाम से ही नियंत्रित कर सकतेहैं।
मन को एकाग्र चित्त करने का सर्वोत्तम उपाय प्राणायाम ही है। इतने विशाल एवं ईश्वरीय जीवन को आप प्राणायाम सेही मनुष्य की सर्वोच्च कल्पना तक लेकर जा सकतेहैंतो स्वास्थ्य एवं सुख तो आपको प्रथम स्तर पर ही प्राप्त हो जाएगा। यहाँकु छ प्राणायाम बताए जा रहे हैं जिन्हेंआप सीखकर एवं अपने दैनिक जीवन मेंअंतर्निहित करके स्वयं को, परिवार को, समाज एवं देश को स्वस्थ एवं सुखी रख सकतेहैं।
मुख्य प्राणायाम हैं – उदर श्वसन, वक्ष श्वसन, गर्दनी श्वसन इन तीनो का योग योगिक श्वसन, नाड़ी शोधन प्राणायाम, कपभाति प्राणायाम, शीतली एवं शीतकारी प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम, ब्रह्मरी प्राणायाम जैसे प्राणायामों को नित्य प्रति दिन जीवन पर्यंत करने से सदैव स्वस्थ एवं सुखी जीवन का अनुभव आपको प्रत्येक क्षण होगा।
प्रत्येक प्राणायाम को अपनेशरीर एवं स्वास्थ्य के अनुसार किसी उत्तम योगाचार से सीखकर ही अभ्यास करें। प्राणायाम हो अथवा आसन इनका समुचित ज्ञान, एवं इनका अनुशासन होना अति आवश्यक है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि की संभावना बनी रहती है। प्रत्येक प्राण की स्वस्थ प्रक्रिया के लिए आवश्यक हैकि हम प्रत्येक दिन स्वस्थ एवं शुद्ध ऑक्सीजन का सेवन करें, जिससेआपके शरीर की प्रत्येक कोशिका को उत्तम ईंधन प्राप्त हों जिससे शरीर के सभी अंग भरपूर शक्ति से कार्य कर सकें।
टहलना भी अपनेआप में एक अति उत्तम व्यायाम है जब तक आप योग एवं प्राणायाम नहीं सीख जाते तब तक और उसके पश्चात भी पैदल चलकर सुबह और शाम अपने संपूर्ण स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं।
स्नान-
स्नान करना भी एक पूजा हैअपने मंदिर तुल्य शरीर की पूजा करना हमारा परम कर्तव्य है। इसी शरीर में ईश्वर का अंश विद्यमान् रहता हैअतः इस शरीर रूपी मंदिर को स्वच्छ एवं स्वस्थ रखना हमारा दायित्व है जब तक आप स्वच्छ जल सेस्नान नहीं कर लेतेतब तक आप मंत्र जाप, संध्या वंदना, स्त्रोत, भव दर्शन एवं चरणामृत जैसी क्रियाओ के अधिकारी नहीं होते।
सर्वाधिक उत्तम स्नान गंगा आदि नदियों अथवा स्वच्छ तालाबों में करनेको माना गया है। परंतु इसमें हमें प्राचीन काल और वर्तमान काल की उपलब्धता एवं पर्याप्तता के अनुसार विवेक का प्रयोग करना चाहिए। पूर्णध्यान एवं तन्मयता सेस्नान करना चाहिए एवं मन में विचार करना चाहिए कि मेरेशरीर के साथ मन का मैल भी धुल रहा हैऔर अगर कहीं जल की उपलब्धता न हो तो भी शास्त्रों में मंत्रों स्नान का उल्लेख है।
अतः स्नान स्वस्थ एवं सुखी जीवन के लिए अत्यंत अनिवार्यपहलूहै। स्नान करनेसे पहलेएवं स्नान के दौरान ईश्वर के नाम का जाप करतेरहना चाहिए। सर्वप्रथम मस्तक पर जल डालना चाहिए एवं स्नान सदैव अपनेशरीर के तापमान के अनुसार जल के तापमान होना स्वास्थ्यप्रद होता है।
गर्मजल से स्नान सर्वथा वर्जित हैइससे शरीर मेंविकार उत्पन्न होते हैं एवं आँखों की दृष्टि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ज्वर होने पर, अतिसार, सर्दी-जुकाम, पसीने में दौड़कर आनेपर तथा भोजन के तुरंत पश्चात स्नान का निषेध बताया गया है।
जब आप प्रातःकाल सूर्योदय से पहले स्नान करतेहैंतो आपके पाप तक नष्ट हो जातेहैं। स्नान करने से आयु, बल, जठराग्नि, तेज, रूप, कान्ति तथा पुष्टि में वृद्धि होती हैएवं शरीर सेव्याधियों का अंत होता है। अगर संभव हो तो सप्ताह मेंन्यूनतम दो बार अभ्यंग अर्थात् तेल सेमालिश करनी चाहिए गर्दन के नीचे पूरे शरीर पर सरसों का तेल और ऊपर बादाम के तेल से अभ्यंग करनी चाहिए। कुछ ऐसी तिथियाँ है जब तेल नहीं लगाना चाहिए जैसे अमावस्या, पूर्णिमा संक्रान्ति, एकादशी आदि। साथ ही इन दिवसों के दौरान क्षौर, नखछेदन, बाल काटना आदि क्रियाओ का निषेध है।
पूजा पाठ –
स्नान आदि क्रियाओ सेनिवृति के पश्चात स्वच्छ, स्वेत/पीत सूती और ढी ले वस्त्र धारण करके घर में वृद्ध जनों अथवा बड़े लोगों को नित्य प्रणाम, चरण स्प र्श क र के अभिवादन करना चाहिए। इससेआयु, विद्या, यश, धन, बल एवं स्वास्थ्य में वृद्धि होती है तत्पश्चात तिलक धारण करके संध्यातर्पण एवं ईष्टदेव का पूजन करना चाहिए। इससे मानसिक व चित्त की शुद्धता एवं एकाग्रता में वृद्धि होती है। गायत्री मंत्र एवं ॐ का जाप करने से पूर्वजन्म में किए गए पाप कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। तथा आपके जीवन मेंसदैव यश कीर्ति एवं बल बुद्धि आयुका विस्तार होता है। साथ ही असमय होने वाली हानि सेभी सुरक्षा हो जाती है। पूजा पाठ सेनिवृत्त होकर तुलसी दल युक्त चरणामृत ग्रहण करना चाहिए जिससेसभी प्रकार के दुः ख, रोग एवं पापों का नाश होता है।
भोजन ग्रहण एवं पाक क्रिया के नियम-
आयुर्वेद के अनुसार भोजन तीन प्रकार के होते हैं तामसिक जो हमें शिथिल एवं अधोगति को ले जाते हैं, दूर से राजसिक जो हमारेमन को चंचल एवं अस्थिर रखते हैं तथा तीसरा सात्विक जो हमारे शरीर को स्वस्थ, मन को शांत एवं उर्धगति प्रदान करतेहैं। भोजन का मन पर बहुत गहरा असर होता है। इसलिए भोजन के प्रति हमें सर्वाधिक सतर्क रहना चाहिए। भोजन ग्रहण करना एवं उसका बनाना अर्थात तैयार करना भी एक अद्भुत एवं विचित्र विज्ञान है। भोजन तैयार होनेपर अपने इष्ट देव तथा बलि वैश्व देव को भोग लगाएं । भोजन ग्रहण करने से पूर्वअच्छे से हाथ पैर धोकर तथा कुल्ला आदि करके सर्वप्रथम देखें कि किसे आपसे पहले भोजन की आवश्यकता है।
जैसे घर मेंआयी हुई विवाहित कन्या, अतिथि, वृद्ध, बालक, गर्भवती महिला आदि को भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करना चाहिए। यदि सभी साथ साथ भोजन करना चाहते हैं तो सभी अपने विशेष स्थान पर बैठकर भोजन ग्रहण करें।
भोजन से पूर्व ही ईश्वर का ध्यान करें एवं ईश्वर को धन्यवाद दें। कु छ वैदिक मंत्रों का भी आप उच्चारण कर सकते हैंअ न्यथा गायत्री मंत्र का उच्चारण करके तीन बार शांति पाठ कइ से त्रिदु:ख अर्थात आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधि दैविक दु:खों का शमन हो ऐसी प्रार्थना करतेnहैं। भोजन पृथ्वी पर सुखासन में बैठकर करना चाहिए यही सर्वोत्तम है। भोजन हमेशा मौन रहकर अच्छे से चबाकर एवं बिना आवाज़ करके करना चाहिए एवं भोजन कभी भी पेट भरकर न करें।
अपने उदर का एक भाग हवा एवं पानेके लिए ख़ाली छोड़े। भोजन के तुरंत बाद जल ग्रहण न करें। मध्य मेंथोड़ा थोड़ा जल ग्रहण कर सकतेहैं। सभी को ज्ञात ही हैकि माँ के हाथ से बनाया हुआ भोजन सर्वाधिक उत्तम होता है। अतः भोजन उसी के हाथ का खाए जिसने मातृत्व भाव सेभोजन बनाया हो तथा ऐसा ही व्यक्ति भोजन परोसेजिसका मन भोजन खिलातेसमय और परोसते समय शुद्ध हृदय एवं पवित्र विचारों से परिपूर्णहो। भोजन बनाने वाले स्थान मेंहवा एवं सूर्य का प्रकाश अवश्य आना चाहिए। तथा साथ ही वर्तमान समय में बहुतायत में प्रयोग होनेवाली आधुनिक वस्तुओ जैसे प्रेशर कू कर, माइक्रोवेव, फ्रिज आदि का प्रयोग न करें तो सर्वश्रेष्ठ है, तथा एल्युमीनियम के बर्तन में भोजन न पकाए।
स्वान और गाय को भोजन देनेके लिए अवश्य कु छ भोजन निकाल कर रखें। घर में स्वान पालन शास्त्रों में वर्जित बताया गया है। भोजन सदैव सात्विक एवं शुद्ध होना चाहिए। शाकाहारी भोजन सर्वोत्तम है भोजन के तुरंत पश्चात दंतधावन एवं कुल्ला करना चाहिए। भोजन के पश्चात्व्यायाम करना निषेध हैलेकिन कु छ सौ क़दम टहल सकते हैं तत्पश्चात दस मिनट वज्रासन में बैठें, इससेआपकी पाचन क्रिया मज़बूत होती है। इन क्रियाओ सेआपको अप्रत्याशित लाभ प्राप्त होता हैजो आपके स्वास्थ्य मेंवृद्धि करता है।
शयन –
शयन करने से न्यूनतम दो घंटे पूर्व आपको भोजन कर लेना चाहिए। सोने से पहले अच्छे से हाथ पैर, मुँह इत्यादि धोकर, हो सके तो स्नान करके ही बिस्तर पर जाना चाहिए और बिस्तर पर तभी जाए जब आपको सोना हो। छह घंटे सुखद नींद पर्याप्त होती है।
सोने से पहले ईश्वर की अराधना करें एवं स्वच्छ, हवादार, निर्मल वातावरण में शयन करें। शयन करतेसमय दिशा का ध्यान अवश्य रखें, उत्तर दिशा मेंसिर करके कभी नहीं सोना चाहिए, इससे जीवन में अनेकों व्याधियाँ आती हैं। शयन करनेकी सर्वोत्तम दिशा दक्षिण दिशा है इस दिशा में सिर करके सोने से आप सदैव स्वस्थ रहते हैं। पूर्वदिशा में सिर करके सोने से भी कुछ हानि नहीं है परंतु हमें पश्चिम एवं दक्षिण दिशाओ को अनदेखा करना चाहिए।
ये वे क्रियाएँ हैं जिनमेंआचार, विचार, आहार, विहार सभी आ जाता हैजो एक स्वस्थ एवं सुखद जीवनशैली का प्रतिपादन करती हैं। आज अगर हम अस्वस्थ हैं तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि हमनेअपनी जीवनशैली को अनुशासित जीवनशैली से अलग कर लिया है। साथ ही वर्तमान दौर में हमने विज्ञान को अपने लाभ के स्थान पर हानि के लिए ज़्यादा प्रयोग किया है।
विज्ञान वरदान एवं अभिशाप दोनों है हमारा इलेक्ट्रॉनिक गैजेट सेअप्रत्याशित लगाव, अनियंत्रित जीवनशैली, प्रकृति से दूरी, ईश्वर से दूरी, शास्त्रों से दूरी, माता पिता एवं वृद्धजनों से दूरी, नैतिकता एवं परोपकार से दूरी, प्यार एवं सौहार्द से दूरी, संतोष एवं ब्रह्मचर्य से दूरी, धैर्य एवं प्रतीक्षा से दूरी, ऐसी बहुत सी उत्तम व्यवस्थाओ सेहमनेअपनेआप को दूर कर लिया हैजिसके कारण हमारा पूरा जीवन अस्त व्यस्त हो गया है।
हम जीवन में स्वास्थ्य , सुख, तृप्ति, संतोष को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। अगर हम उपरोक्त दूरियों को कम कर देंतथा प्रकृति के सानिध्य मेंचलेजाए तो हमारी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, साहित्यिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक एवं आत्मिक उन्नति को कोई रोक नहीं सकता है।
इससे हम देखेंगे की पुनः भारत वर्ष में बड़े बड़े ऋषि मुनि जैसे महान लोग उत्त्पन्न होने लगें हैं जिनसे हमारी संस्कृति को आनेवाले करोड़ों वर्षों तक पुनः नवजीवन मिलता रहेगा। साथ ही हमें अपने मूल्यों की स्पष्ट पहचान होगी। हमने इन सभी को भूलकर जीवन में ऐसी वस्तुओ, एवं प्रक्रियाओ, आदतों को अपना लिया हैजो हमेंनित्य प्रतिदिन एवं प्रतिपल गर्त में लेजा रहेहैं। हमें ठहरना होगा, हमें शांत होना होगा, हमें धैर्यवान होना होगा, हमें अनुशासित होना होगा, हमेंसंतोष मेंजीना होगा, हमें नैतिकता की सर्वोच्च गति को प्राप्त करना होगा तभी हम तीव्रगति से विकास कर सकतेहै, तभी हमारी कार्यक्षमता सर्वोत्तम हो सकती है, तभी हम वैश्विक स्तर पर उन्नति कर सकतेहैं।
१३० करोड़ लोगों में हम केवल सात मेडल लाते हैं हालाँकि हमारे लिए यह बहुत गर्व की बात हैऔर विकास की भी बात है। क्यों ना हम सर्वोच्च श्रेणी मेंआ जाए, क्षेत्र चाहे कोई भी हो हमें जीवन के लिए निर्देश पुस्तिकाओ का गहन अध्ययन करना होगा, उन शास्त्रों का जो हमारे पूर्वज, हमारे ऋषि मुनि, हमारे देव हमें सुपुर्द करके गए हैं। उनका वर्तमान संदर्भ में अध्ययन अध्यापन एवं उनको आत्मार्पित करना होगा एवं उनके वर्तमान समय के लिए प्रायोगिक शोध करने होंगे तभी हम जीवन में स्वास्थ्य , सुख प्राप्त कर सकते हैं एवं वैश्विक भलाई कर सकतेहैं। आज ही नहीं अपितु प्राचीन काल सेही हमने विश्व का मार्गदर्शन किया है वह समय अब आ गया की हम विश्व का फिर से मार्ग दर्शन करें एवं विश्व मेंशांति, सौहार्द स्थापित करें।
जय हिंद जय भारत।
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