आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति: स्वास्थ्य और संतुलन के लिए अत्यंत प्रभावी नुस्खे
आधुनिक चिकित्सा पद्धति से कई हजारों साल पहले दुनिया के अलग-अलग देश में उनकी अपनी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धतियां रही है। ऐसी पद्धतियां जो मानव शरीर और मन के विकारों को दूर करने के लिए कई हद तक कारगर रही। पर समय के साथ-साथ और औपनिवेशिक काल के दौरान अधिकांश पद्धतियों ने अपना दम तोड़ दिया।
ऐसी एक पद्धति भारत में है जिसे हम आयुर्वेद के नाम से जानते हैं। विश्व के सबसे पुराने देश में से एक भारतवर्ष में प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद लगभग 5000 से 6000 वर्षों से चली आ रही है। आयुर्वेद दो शब्दों, ‘आयूर’ और ‘वेद’ से मिलकर बना है। आयुर का अर्थ है जीवन और वेद का अर्थ है ज्ञान।
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति
जीवन को अच्छे से समझना, और प्रकृति के साथ तालमेल मिलाकर एक स्वस्थ जीवन जीना ही आयुर्वेद है।
यह किसी चमत्कार से कम नहीं है कि सदियों तक अलग-अलग आक्रांताओं और विदेशी साम्राज्य के अधीन रहने के बाद भी भारत के लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को इतनी सहायता से अपनाते हैं।
भारत में 90% से ज्यादा लोग किसी न किसी तरीके से आयुर्वेदिक औषधियां या व्यायाम या फिर इसकी जीवन आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अमल में लाते हैं।आयुर्वेद फॉर वन हेल्थ जैसे कैंपेन ने इसे वैश्विक पहचान दिलाने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है।
हालिया वर्षों में आयुर्वेद को श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, यूएई, बांग्लादेश, ओमान, सऊदी, अरब, हंगरी, मलेशिया, मॉरीशस, सर्बिया, तंजानिया, स्विट्जरलैंड, क्युबा, और ब्राजील जैसे देशों ने चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है।
क्या आप भी भारत के उसे गौरवशाली इतिहास का एक हिस्सा है जिसे आज दुनिया अपना रही है?
अगर आपका जवाब ना है तो हां यह ब्लॉग आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति आपके लिए ही है।
इसे पूरा पढ़े और आपको आयुर्वेद के बारे में कुछ बेहद जरूरी बातें पता चलेंगी और हो सकता है कि आपको अपने जीवन को समझने में और ज्यादा आसानी हो।
आयुर्वेद के अंग:
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अनुसार मानव शरीर तीन तत्वों दोष, धातु, और मल से मिलकर बना होता है जो शरीर और मन के स्वस्थ रखते है।
त्रिदोष सिद्धांत: वात, पित्त, कफ
आयुर्वेद ने दोषों को तीन अलग-अलग प्रकार में बाटां है जिन्हें हम वात, पित्त, और कफ कहते हैं। यह तीनों ही तत्व प्रकृति के पांच मूल तत्वों में से दो से मिलकर बने होते हैं।
वात:
तत्व- वायु व आकाश
नियंत्रण कार्य- श्वसन प्रक्रिया, हृदय प्रक्रिया, मांसपेशियों और जोड़ों की प्रक्रिया
मनोवैज्ञानिक प्रभाव- दर्द, चिंता, भय, रचनात्मकता और इत्यादि।
पित्त:
तत्व- अग्नि व जल
नियंत्रण कार्य- बुद्धि, त्वचा का रंग, चपापचय, और पाचन
मनोवैज्ञानिक प्रभाव- द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, समझ इत्यादि।
कफ:
तत्व- पृथ्वी व जल
नियंत्रण कार्य- शारीरिक संरचना एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता।
मनोवैज्ञानिक प्रभाव- शांति, क्षमा, लोभ, प्रेम, लालच, मोह इत्यादि।
धातुओं और मल की प्रमुख बातें:
शरीर में साथ तरीके के धातु पाए जाते हैं जो शरीर में होने वाले अलग-अलग आंदोलनों के लिए जिम्मेदार है। ये सात धातु निम्नलिखित है।
- शरीर में साथ तरीके के धातु पाए जाते हैं जो शरीर में होने वाले अलग-अलग आंदोलनों के लिए जिम्मेदार है। ये सात धातु निम्नलिखित है।
- रस धातु- शरीर में मौजूद अलग-अलग फ्लूएड या प्लाज़्मा।
- रक्त धातु- मानव शरीर में मौजूद रक्त।
- मांस धातु- मांसपेशियां।
- मैद धातु- फैट जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है।
- अस्थि धातु- शरीर की हड्डियां।
- मज्जा धातु- अस्थि मज्जा या बोन मैरो और शारीरिक तंत्रिका प्रणाली।
- शुक्र धातु- प्रजनन शक्ति को पोषित करती है।
मानव शरीर से बाहर निकलने वाली गंदगी को आयुर्वेद में माल कहा जाता है। यह भी दो प्रकार की होती है।
- आहार मल- पुरीष (मल), मूत्र, तथा स्वेद (पसीना)।
- धातु मल- नाक और कान से निकलने वाले द्रव, नाखून, बाल, कार्बन डाइऑक्साइड, और लैक्टिक एसिड।
- सारे धातु एक दूसरे से जुड़े हुए हैं मतलब किसी एक धातु पर प्रभाव पड़ने पर अन्य सभी धातुओं में संतुलन बिगड़ने लगता है।
- मानव शरीर के दोष हर एक के अलग-अलग होते हैं इसलिए आयुर्वेद व्यक्तिगत चिकित्सा प्रणाली पर कार्य करता है ना कि सामूहिक चिकित्सा प्रणाली पर।
- दोषों के संतुलन में रहने पर धातु संतुलन में भी मदद मिलती है।
- माल का उत्सर्जन शारीरिक प्रक्रियाओं को चलाने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
आयुर्वेद के चार प्रमुख स्तंभ :
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति किसी एक औषधि पद्धति पर निर्भर नहीं है बल्कि यह हमारी पूरी जीवन शैली को एक लय में बांधकर रखता है ताकि हम अपने संपूर्ण जीवन को स्वस्थ तरीके से जी सके। इसके लिए मुख्ता चार तरीकों पर काम किया जाता है जो कि निम्नलिखित है।
1.आहार:
- आयुर्वेद के अनुसार आहार तीन प्रकार के होते हैं। 1. सात्विक आहार, 2. राजसिक आहार 3. तामसिक आहार।
- सात्विक आहार वो जिसमें सत्व गुण की मात्रा अधिक होती है। जैसे दूध, फल, और सब्जियां।
- राजसिक आहार वो जिसमें रजोगुण की मात्रा ज्यादा होती है जिससे उत्साह एवं राज उत्पन्न होते हैं। तेल, मसाले, मिठाइयां, और मेवे राजसिक आहार हैं।
- तमो गुण की अधिकता से भरपूर तामसिक आहार जैसे कि मांस, मदिरा, अत्यधिक मीठा और तेल उदासीनता और निराशा की तरफ ले जाते हैं।
- आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ जीवन का राज आपकी दिनचर्या के आहार पर निर्भर है। अधिक तत्व गन वाले पदार्थ खाने पर आपका स्वास्थ्य और अच्छा होगा। कोशिश करें की राजू और तमोगुण के खाद्य सामग्रियों का कम से कम व्यवहार करें।
2. विहार:
- ध्यान, व्यायाम, और योग को अपने दिनचर्या का हिस्सा बनाएं।
- योगासन और व्यायाम के अभ्यास के साथ अपनी शारीरिक स्वस्थता को बनाए रखें।
3.आचार:
- ध्यान लगाने का अभ्यास करके अपने मन को सकारात्मक और रचनात्मक दिशा में ले जाने का प्रयास करें।
- जीवन ज्ञान और विद्या में रुचि लगायें।
- ईमानदारी दया और सहानुभूति के साथ अपना जीवन करूणा के साथ जीये।
4.औषधि:
- तुलसी और अश्वगंधा जैसी जड़ी बूटियां का इस्तेमाल कर आयुर्वेदिक औषधि कोरोग निवारण के लिए बनाया जाता है।
- प्राकृतिक तरीके से पाए गए रस जैसे नीम रस और आंवला रस का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के विकारों से लड़ने के लिए उपयोग में आता है।
- कई तरह के प्राकृतिक अवयवों को मिलाकर आयुर्वेदिक औषधियां का निर्माण होता है जो विकारों को जड़ से खत्म करती है। जैसे – त्रिकटु, यष्टिमधु, आदि।
आयुर्वेद के प्रकार (Types of Ayurveda):
1. भूतविद्या (Bhutavidya): मन के अत्यंत सूक्ष्म रूपों का अध्ययन
मानव मस्तिष्क के मनोविकारों और उनसे जुड़ी औषधीय का अध्ययन होता है। इसमें नाक में दवाई डालना, रस्सी से बांधना, और बैक्टीरिया के लिए औषधि दी जाती है।
आयुर्वेद में बैक्टीरिया और वायरस को भूत, पिशाच, राक्षस जैसे शब्दों से जाना गया है।
2. कायचिकित्सा (Kayachikitsa): शारीरिक रोगों का उपचार
काय चिकित्सा में औषधियों तथा जीवन शैली को ध्यान में रखकर स्वास्थ रक्षा एवं बिमारियों का निदान किया जाता है। इसमें शारीरिक अग्नि एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और आयुर्वेद के अनुसार शरीर का प्रत्येक कोशिका हर पल एक प्रक्रिया कर रहा है।
जब शरीर की अग्नि अच्छे ढंग से कम कर रही होती है शरीर में तीनों दोष, सातों धातु, और मल की प्रक्रिया व्यवस्थित ढंग से होती है।
3. शल्यचिकित्सा (Shalyachikitsa): शल्यरूप रोगों का चिकित्सा
शल्य चिकित्सा में शरीर में मौजूद विदेशी पदार्थ या शारीरिक विकारों को शरीर से निकलने की विधि का अध्ययन होता है। आधुनिक समय में इस सर्जरी के नाम से जाना जाता है। भारत के प्राचीन ऋषि सुश्रुत इसका उपयोग शरीर में चोट या घाव को ठीक करने, और किसी जगह पर अतिरिक्त माल के जमाव को बाहर निकालने के लिए किया करते थे।
4. बालचिकित्सा (Balachikitsa): बच्चों के रोगों का इलाज
बाल चिकित्सा में आयुर्वेद गर्भावस्था के दौरान, प्रसव प्रक्रिया में, और प्रसव के बाद के रोगों और उसके निदान का अध्ययन किया जाता है। गर्भावस्था और उसे समय महिलाओं की सेहत, शिशु उपचार स्तनपान और प्रसव के लिए दाई का चुनाव- बाल शिक्षा के यह प्रमुख भाग हैं।
आयुर्वेद में रोग निदान:
1.नाड़ी परीक्षण:
आयुर्वैदिक वैद्य मरीजों की नदियों में होने वाले पल्स को महसूस करके उनके शारीरिक स्थितियों को बताते हैं और सही उपचार करते हैं।
2. जिह्वा परीक्षण:
जीह्वा के रंग, लकीर, और लक्षणों को ध्यान में रखकर रोगी का उपचार किया जाता है।
3.मूत्र और मल परीक्षण:
रोगी के मूत्र और मल के गढ़ रंग संरक्षण इत्यादि का परीक्षण करके उसके शारीरिक और मानसिक रोगों का पता लगाया जाता है।
आयुर्वेद में रोग प्रतिष्ठान:
1. अजीर्ण:
पाचन क्रिया का अच्छे से कम ना करना आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में रोगों के उत्पन्न होने का एक महत्वपूर्ण कारक है। शरीर में आहार का पाचन अच्छी तरह नहीं होता जिसके कारण शरीर को सही पोषण नहीं मिल पाता है।
2.अविधिआहार:
अभी आहार यानी की सही समय पर भोजन न करना और भोजन में आवश्यक के पोशाक मात्राओं का अनुपस्थित रहना। ऐसे असंतुलित भोजन शरीर में विकारों के कारण बनते हैं।
3. दिनचर्या विकृति:
आयुर्वेद में प्रत्येक मनुष्य के दिनचर्या के पालन को बेहद आवश्यक के माना गया है। ऐसा न करने पर दिनचर्या में विकृति उत्पन्न होती है जिसकी वजह से शरीर खुद-ब-खुद रोजी चपेट में आने लगता है।
आयुर्वेद में औषधियाँ:
1.जड़ी-बूटियाँ:
प्राकृतिक जड़ी बूटियां जो ज्यादातर वनों में पाई जाती हैं, उनमें अत्यधिक मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट विटामिन और खनिज पदार्थ पाए जाते हैं। यह जड़ी बूटियां आयुर्वेद में प्रमुख उपचार तत्व हैं जो शरीर को तंदुरुस्त बनाए रखते हैं।
2.रसायन औषधियाँ:
रसायन औषधियां शरीर में ऊर्जा और शरीर की संरचना को मजबूत करने के लिए बनाई जाती हैं। शिलाजीत, आमला, अश्वगंधा जैसे तत्व शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाती है और शरीर को ऊर्जा से भरपूर रखती है।
3.ब्राह्मण औषधियाँ:
ब्राह्मण औषधीय में प्रमुख ब्राह्मी, शंखपुष्पी, और जतामांसी है जो दिमाग को शांति पहुंचने में सहायक है। इसके साथी या स्मृति बढ़ाने और मानसिक चुनौतियों से हमारे शरीर की रक्षा और उनका निदान करते है।
समाप्ति:
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अध्ययन पद्धति में कोई अंत नहीं है बिल्कुल वैसे ही जैसे हम जीवन के गुण राज्य को कभी समझ नहीं सकते। पर कुछ महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रख कर हम अपने शरीर और मन को आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अनुरूप लंबे समय तक स्वस्थ रख सकते हैं।
आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत शरीर में मौजूद दोषों को लेकर हैं। तीन तरह के दोष हमारे शरीर और मन के व्यवहार को दिशा देते हैं।
एक स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक है जीवनशैली को बदलना जिसमें शरीर के साथ मन और आत्मा की सेहत पर भी ध्यान दिया जाय।